काव्यांतर
Sunday, December 13, 2015
ढूंढ रहे हो
ढूंढते है खाख में लोग जाने क्या ,
क्या
कभी फ़रमाया गौर जब वो जहां मुकम्मिल था!
ढूंढ रहे हो गए वक़्त के निशान ,
क्या
कभी संजोगे लम्हे जो साथ चले !
ढूंढ रहे हो खुदको क्या तुम उस ख़ाक में..
शायद एहि पल तुमने चाहा था!
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